#नारायणी_सेना
यूँ तो कृष्ण के चरणों की धूल के कण मात्र पर भी महाकाव्यों की रचना हो सकती है परंतु फिर भी उनके कालखंड में उनके चहुं ओर व्याप्त घटनाओं, व्यक्तियों व उपकरणों के प्रति मेरी अधिक आसक्ति रही है।
उनका एक महत्वपूर्ण उपकरण थी नारायणी सेना।
-नारायणी सेना, तत्कालीन युग की सबसे शक्तिशाली सेना
-नारायणी सेना, कृष्ण की सबसे भयानक प्रहारक शक्ति।
-नारायणी सेना, कृष्ण का सबसे बड़ा उपदेश।
पर आश्चर्य की बात है कि महाभारत युग की सबसे महत्वपूर्ण सैन्य शक्ति का अधिक विवरण पुराणों में उपलब्ध नहीं।
इसका कारण भगवान वेदव्यास, महर्षि जैमिनि आदि लेखक व बुद्धिजीवियों की सैन्य विषयक मामलों में उदासीनता नहीं बल्कि कृष्ण के महान उद्देश्यों के समक्ष उसकी लघु महत्ता है।
यही कारण है कि विभिन्न स्रोतों से लेकर मैंने नारायणी सेना के संबंध में उपलब्ध सूचनाओं को जोड़कर उसके संगठन व स्वरूप को निर्धारित करने का दुःसाहस किया है।
वस्तुतः नारायणी सेना के संगठन का प्रारंभ तभी हो गया था जब कृष्ण ने गायें चराते हुये न केवल आभीरों की युद्धकला को आत्मसात किया बल्कि उसे पूर्ण मार्शल आर्ट में परिवर्तित करते हुए वेलाकलि शैली को जन्म दिया।
यह वैदिक कलारी की तीसरी शैली थी।
महारुद्र शिव द्वारा जन्मी, कार्तिकेय द्वारा प्रसारित इस कला के दो शैलियां 'थेक्कन' और 'वदक्कली' पहले ही अगस्त्य व परशुराम द्वारा प्रचलन में थी।
हाथ में लकड़ी के ठोस दण्डों से 'डांडिया' रास ही नहीं होता था उससे दुश्मन का सिर भी चूर चूर किया जा सकता था।
कमल पत्र और मृणाल तो बस प्रतीकात्मक व प्रशिक्षण भर के लिए था वरना कमलपत्र ढाल के रूप में और मृणाल लपलपाती तलवार के रूप में शत्रु का सिर धड़ से अलग कर सकती थी।
रासनृत्य केवल मनोरंजन नहीं था बल्कि प्रहारक 'युद्ध नृत्य' भी था और यह कोई संयोग नहीं कि राजपूतों तक यह 'War Dance' शैली में तलवार संचालन होता रहा।
और इतनी से नन्हीं अवस्था में इन युद्ध कलाओं का विकास करने वाले इस चमत्कारी बालक की क्षमताओं का अंदाज इसी से लगा लें कि मर्मस्थलों पर वार करके चाणूर व मुष्टिक जैसे भारत प्रसिद्ध मल्लों को माँस का लोंदा बना दिया और सटी हुई उंगलियों के एक कर प्रहार से गुंडे रजक की गर्दन सफाई से ऐसे उड़ा दी मानो हथेली हथेली न होकर तीखी छुरी हो।
वस्तुतः भारत उस युग में एक खतरे का सामना कर रहा था।
राम के युग के पश्चात 'असुर' पश्चिम एशिया में शक्तिशाली हो रहे थे और विभिन्न व्यापारिक बस्तियों के माध्यम से राजनीति में हस्तक्षेप करने लगे थे।
वे जरासंध के संपर्क में थे,
वे कंस के संपर्क में थे,
वे बाणासुर व नरक जैसे प्राचीन असुरों के भी संपर्क में थे।
वे दुर्योधन से भी संपर्क करने का प्रयत्न कर रहे थे।
-जरासंध उनके दूषित प्रभाव में आकर 'नरमेध' जैसा दुष्कृत्य करने पर उतारू था।
-कंस असुरों का प्रयोग 'भाड़े के हत्यारों' के रूप में करने लगा।
सिंधु क्षेत्र में यूनानियों की बस्ती 'दत्तमित्री' के रूप में एक और अलग खतरे के रूप में थी और उनका नेता गर्गाचार्य का पुत्र 'कालयवन ' जो आर्य संस्कृति का कट्टर शत्रु था जिससे असुरों का गठबंधन तय था।
संभवतः जब कृष्ण जरासंध व कालयवन के 'इनसिजन टैक्टिक' अर्थात 'कैंची आक्रमण' से बचने के लिए यदुसंघ के 'महान निष्क्रमण' का नेतृत्व कर रहे थे उस समय ही उन्हें संभवतः एक पेशेवर सेना के संगठन की आवश्यकता प्रतीत हुई जिसके लिए सबसे अधिक आवश्यकता थी धन की।
उन्होंने सबकुछ सोचकर शार्यात आर्यों के क्षेत्र पर अधिकार जमाकर बैठे प्राचीन असुरों के अड्डे 'कुशस्थली' पर आक्रमण कर उसे अधिकार में कर यदु गणसंघ को अजेय जलदुर्ग में सुरक्षित कर दिया बल्कि पश्चिम एशिया के व्यापारिक केंद्र पर अधिकार कर लिया।
धन अब कोई समस्या नहीं था।
हरे भरे चरागाह, कृषि भूमि और पश्चिम एशिया से संपूर्ण व्यापार अब कृष्ण की मुट्ठी में था।
उनके द्वारा प्रशिक्षित गोपों की यह परंपरा से बनी एक छोटी मोटी सेना जो वृंदावन में ही तैयार हुई थी वही अब एक पेशेवर सेना के रूप में नारायणी सेना के रूप में विकसित हो गई क्योंकि अब उनके हाथों में व्यापार व वाणिज्य के रूप में अकूत आर्थिक स्रोत पर उनका अधिकार में था।
जरासंध मंडल जिस अनुपात में सेना बढा रहा था उसी अनुपात में कृष्ण को भी नारायणी सेना की संख्या बढ़ानी पड़ी जो बढ़ते बढ़ते चार अक्षौहिणी अर्थात लगभग नौ लाख के आसपास हो गई।
कृष्ण ने इस सेना की छावनियां चतुराईपूर्वक उन क्षेत्रों में स्थापित की जिनपर कोई राज्य अपने अधिकार का दावा नहीं कर सकता था लेकिन भारत के सभी महत्वपूर्ण मार्गों पर उनका नियंत्रण स्थापित हो गया।
उदाहरण के लिए उन्होंने अपनी सेना के एक बड़े भाग को चर्मण्यवती अर्थात चंबल के बीहड़ों में रखा जिससे न केवल सेना के पोषण हेतु विशाल चरागाह क्षेत्र मिल गया बल्कि विभाजन के कारण कमजोर हो चुके पांचालों को कुरुओं व मगध के विरुद्ध तुरंत सहायता पहुंचाई जा सकती थी।
एक भाग कहीं न कहीं पूर्व में भी था ताकि काशी, पुण्ड्र और प्राग्ज्योतिषपुर के गठबंधन पर दृष्टि व नियंत्रण रखा जा सके व अभियान के समय तुरंत सैन्य उपलब्ध हो सके।
उन्होंने सेना का एक बड़ा भाग निश्चय ही सौराष्ट्र में तो रखा ही होगा क्योंकि न केवल जरासंध मंडल बल्कि पश्चिमी एशिया के असुरों से सुरक्षा आवश्यक थी जिन्हें कृष्ण तीन बार सबक सिखा चुके थे।
प्रथम कुशस्थली से एक एक असुर का समूल नाश ताकि पश्चिमी सीमा सुरक्षित रहे।
द्वितीय कालयवन का विनाश जिसमें भारी संख्या में असुर भी थे।
तृतीय गुरुदक्षिणा के तौर पर गुरुपुत्र को वापस लाने के प्रक्रम में पंचजन के पूरे बेड़े का विनाश।
जरासंध की मृत्यु व शाल्व वध के साथ ही नाओरायणी सेना ने अपने सारे लक्ष्य पूर्ण कर लिये लेकिन तीन खतरे अभी भी उपस्थित थे।
1-पूर्वोत्तर में नरक व बाणासुर जैसे असुर संस्कृति के पोषक राजाओं की उपस्थिति
2-असुरों का दुर्योधन से गठबंधन
3-एकलव्य का द्वारिका के पास के द्वीपों में सैन्य उपस्थिति।
पर सबसे बड़ा खतरा स्वयं नारायणी सेना ही बनती जा रही थी और कृष्ण इसे भलीभांति समझ रहे थे।
सैद्धांतिक रूप से गणसंघ का नेतृत्व भले ही अंधकवंशी उग्रसेन के हाथों में था लेकिन वास्तविक नेतृत्व कृष्ण-बलराम व सात्यिकी के हाथों में था और यही बात भोज व अन्धकवंशियों को खटक रही थी जिनका नेतृत्व कृतवर्मा कर रहा था।
प्रारम्भ में कृष्ण के प्रशंसक रहे वृष्णिवंशी अक्रूर भी व्यक्तिगत कारणों से इस गुट से मिल गए और इस फूट ने स्यमंतक मणि के माध्यम से यदुकुल के विनाश का बीज बोया।
और वैसे भी यादवों को अब कृष्ण व धर्म की आवश्यकता नहीं रह गई थी क्योंकि वह उनके अबाध भोग व सत्तामद के आड़े आ रहे थे।
चूँकि कृष्ण सामूहिक नेतृत्व व सत्ता के विकेंद्रीकरण में भरोसा करते थे अतः उन्होंने 'नारायणी सेना' को कई भागों में बांटकर उसका नेतृत्व विभिन्न कुलों को सौंप दिया और सबसे बड़ा भाग कृतवर्मा को दिया।
कृष्ण की उदारता के कारण सेना की निष्ठा अपने सेनानायकों के प्रति आ गई और उनकी बुराइयां भी।
कृष्ण ने नारायणी सेना के अधिकांश भाग को नष्ट करवाने का निश्चय कर लिया लेकिन उससे पूर्व उन्होंने एक विशाल टुकड़ी लेकर एक अत्यंत गोपनीय अभियान किया और वह था एकलव्य के विरुद्ध।
संभवतः एकलव्य की किसी भी पक्ष की छावनी में अनुपस्थिति ने उन्हें एकलव्य के इरादों के प्रति सतर्क कर दिया। वे पुनः शाल्व प्रकरण को दोहराना नहीं चाहते थे खासतौर पर जब बलराम दुर्योधन की अप्रत्यक्ष मदद हेतु अपनी ही 'कूटनीति' दिखाने के चक्कर में सारे यादव महारथियों को अपने साथ 'तीर्थयात्रा' पर ले गए थे।
द्वारिका असुरक्षित थी और पीछे की ओर से पांडव शिविर भी अतः उन्होंने एकलव्य के गुप्त ठिकाने पर आक्रमण किया और उसका वध कर उप्लवय लौट आये और इसका खुलासा घटोत्कच की मृत्यु के समय किया।
अब बारी नारायणी सेना के विध्वंस की थी जिसमें से एक अक्षौहिणी से भी अधिक का निजी भाग कृतवर्मा के नेतृत्व में दुर्योधन के शिविर में भेज दिया।
सात्यिकी अपने संघीय व व्यक्तिगत अधिकार का हवाला देकर अपने नेतृत्व वाली सेना के साथ पांडव शिविर में आ गए।
परंतु हास्यास्पद घटना यह हुई कि दुर्योधन ने कृष्ण के ऊपर अविश्वास के चलते नारायणी सेना को टुकड़ियों में बांटकर अलग अलग सेनापतियों के अधीन कर दिया जिससे उसकी मारक क्षमता ही समाप्त हो गई।
कृष्ण के नारायणी सेना के बदले चरित्र के आकलन की सटीकता और उनके प्रशिक्षण की भयानकता को इसी बात से समझा जा सकता है कि युद्ध में इन सैनिकों ने खाली हाथों से ही अर्जुन के रथ के घोड़ों, चक्रों से लिपटकर रथ को अवरुद्ध कर दिया और अगर उस दिन कृष्ण न होते तो अर्जुन के साथ दुर्घटना होनी तय थी।
खैर कौरवों के साथ नारायणी सेना का भी विनाश हुआ लेकिन कुछ महाभारत विशेषज्ञों के अनुसार नारायणी सेना के चौबीस सहस्त्र आभीर सैनिक भाग गए और पंजाब के घने वनों में आभीरों की पश्चिमी शाखा से जा मिले व कृष्ण के जाने के बाद अर्जुन पर आक्रमण कर अपने विनाश का प्रतिशोध लिया।
कुछ आभीर सैनिक दक्षिण की ओर चले गए जहाँ उन्होंने कृष्ण की कलारी विधि 'वेलाकलि' का प्रचलन किया जो कलारी की अन्य मूल शाखाओं के साथ प्रैक्टिस की जाने लगी।
अस्तु!
नारायणी सेना एक अत्युत्तम उदाहरण है ऐसे लोगों का जो न्यायपथ पर चलते चलते अपना मार्ग भटक जाते हैं और फिर समूल विनाश ही उनकी नियति बन जाता है।
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