108 में से 107 का वर्णन।।
परसों बात की थी कि पहनने वाली माला कितने भी मनके की हो फर्क नहीं पड़ता, जपने वाली 108 मनके की ही होनी चाहिए। ये भी बताया था कि अंगूठे के टॉप भाग में आज्ञाचक्र का पॉइंट होता है जो बार बार मनके पर रगड़ने से न जाने कब व्यक्ति की प्रज्ञा जागृत हो जाए।
तो प्रश्न यह है कि जप क्यों करना चाहिए?108 मनके की माला से ही क्यों करना चाहिए?
इसका विधान धातु, चक्र, गृह, आदि की गणना पर आधारित है। जिसका पूर्ण वर्णन आगे दिया है।
शरीर में तेरह प्रकार की #अग्नि होती हैं, सात धात्वाग्नि,पांच भूताग्नि, एक जठराग्नि जिससे भोजन पचता है पेट में।
आयुर्वेद में एक विभाग रहता है #कायचिकित्सा का, उसका अर्थ ही है अग्नि चिकित्सा। उसमें इन्हीं तरह अग्नि को बैलेंस करके रोग ठीक किया जाता है।
#आठ होते हैं चक्र। जिन्हें सामान्य भाषा में कुंडली भी कहते हैं।
वेद भगवान खुद कहते हैं--अष्टचक्र नवद्वारा एते देवनाम अयोध्या पुरः-#अथर्ववेद,, पता नहीं लोक में क्यों और किस कारण से सात चक्र प्रचलित हो गए हैं??
सात होती हैं #प्रज्ञा की स्टेज, मतलब हमारे ज्ञान के सात स्तर होते हैं।
ऋषि पतंजलि उसी के बारे में तो कह रहे हैं--तस्य सप्तधा प्रांतभूमि: प्रज्ञा:--योगदर्शन।।
और सात ही होती हैं शरीर में #धातुएं--रस-रक्त-मांस-मेद--मज्जा-अस्थि--वीर्य।
इसके अलावा तैत्तिरीय उपनिषद के ऋषि कह रहे हैं कि व्यक्ति में #पंचकोष होते हैं--अन्नमय--प्राणमय-मनोमय-विज्ञानमय--आनंदमय।
इसके अलावा योगदर्शन के आचार्य #पंचक्लेश मानते हैं-अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेश।
और पांच ही #चित्तवृत्ति हैं--प्रमाण-विपर्यय-विकल्प-निद्रा-स्मृति।
पांच ही चित्त की भूमि हैं--क्षिप्त-मूढ़-विक्षिप्त-एकाग्र-निरुद्ध।
सांख्य के ऋषि सूक्ष्म और स्थूल शरीर के तत्वों को बताते हुए कहते हैं--#पंचभौतिकं देहे--सिद्धांत को जानने वाले आचार्य कहते हैं कि शरीर पांच भूतों पृथ्वी अग्नि वायु जल आकाश से बना है।
इसमें पांच #तन्मात्रा हैं--शब्द तन्मात्रा-स्पर्श तन्मात्रा-रूप तन्मात्रा--रस तन्मात्रा-गंध तन्मात्रा।
इसके अलावा पांच #ज्ञानेंद्रियां, पांच #कर्मेन्द्रियाँ।
पांच उनके विषय--शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध।
यह सब जो बाहर होते हैं शरीर में भी होते हैं।
योग आयुर्वेद के आचार्य शरीर में पांच प्रकार के #प्राण-प्राण-अपान-समान-उदान-व्यान कहते हैं, और पांच ही इनके सहयोग छोटे यानी #उपप्राण बताते हैं--नाग, कूर्म, कृनकल, देवदत्त, धनंजय।
इसके अलावा रामायण महाभारत से लेकर तमाम धर्मग्रंथ चार #पुरुषार्थ जो मनुष्य की बुद्धि में रहते हैं उनको बताते हैं कि-धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष।
हम अपने विवेक के अनुसार इनमें से जिसे चुनते हैं वैसे ही कर्म करते रहते हैं।
इसके अलावा आयुर्वेद के आचार्य और महर्षि वेदव्यास #अंतःकरण चतुष्ट्य के बारे में बताते हुए कहते हैं कि--मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार ये व्यक्ति के अंतःकरण हैं जो अंदर से कार्य करते हैं।
आयुर्वेद के अनुसार तीन #दोष हैं शरीर में--वात-पित्त--कफ।इन्ही से शरीर बना है और चलता है।
वैशेषिक के आचार्य कणाद और सांख्यदर्शन के आचार्य महर्षि कपिल तीन #गुण बताते हैं--सत्वगुण--रजोगुण--तमोगुण।
जो हमारे व्यवहार चिंतन क्रियाकलापों पर अत्यधिक प्रभाव डालते हैं।
इसके अलावा महर्षि कपिल ने ही तीन #अवस्थाएं बताई हैं प्रतिदिन के जीवन में जीव की--जागृत-स्वप्न--सुषुप्ति।
लेकिन दूसरे कुछ विद्वान कहते हैं कि अवस्था से तात्पर्य--#बाल्यावस्था--युवावस्था--वृद्धावस्था से है।
लेकिन जब जप करते हैं तो तीन अवस्थाओं से दोनों को एक ही तीन में मानकर चलते हैं।
ये ऊपर लिखे तत्व कुल मिलाकर 107 होते हैं, और108 वें में आत्मा और परमात्मा को ग्रहण करते हैं।
कोई यह ज्ञान न दे कि ये तो दो हैं।
सांख्य के ऋषि जब 25 तत्वों से सृष्टि को बनी बताते हैं तो 24 भौतिक तत्वों को कहकर--#पुरुष:पंचविंशति --यानी आत्मा और परमात्मा पच्चीसवें हैं यह कहते हैं।
इसलिए 108 मनके की माला फेरते हैं कि आज नहीं तो कल हमें बोध हो जाए कि चौरासी लाख योनियों में भटक लिए लेकिन इन्हीं 107 में भटक रहे हैं। इनसे बाहर निकलते ही नहीं,108 वे पर जाते ही नहीं।
यही रहस्य है माला फेरने का,अब इतनी बातें अपने पूर्वज ऋषि किन किन को बताते समझाते, तो कह दिया कि 108 मनके की माला फेर। सिर्फ इस उम्मीद में कि कभी तो #प्रज्ञा जगेगी ही, तब समझ जाएगा कि अरे जन्म जन्मान्तरों से इसी में तो फिर रहा हूँ।
यह माला नहीं फिर रही, यह तो मैं फिर रहा हूँ। ईश्वर करे आप सबमें भी किसी क्षण यह बोध प्रकट हो, इसी कामना के साथ।
108 वां मनका क्यों नहीं #लांघते,,उसको सुमेरु क्यों कहते हैं??यह कल बताएंगे।
ॐ श्री परमात्मने नमः *सूर्यदेव*
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